Thursday, 15 March 2018

Tonight

Tonight, 
Let me show you my skin
And what lies beneath!

and tonight,
Let me seize your heart
And trap it in my breath!

and tonight,
Let me touch your soul
From the silk of my body!

and tonight,
Let me burn your uncertainties
From the warmth of my love!

and tonight,
Let the Phoenix emerge
From the ashes we just produced!

and tonight,
Just you and me
And the Phoenix
Let's fly to the moon and back!

Monday, 27 March 2017

एहसास तुम्हारा

सुनो,
तुम जब हवा सी बहती हो,
मेरे रेत से बिखरे हुए चित्त को
किसी गहरे, ग़ूढ भंवर मे बदल जाती हो |

सुनो,
तुम जब हवा सी बहती हो,
मेरे काठ से कड़े और ढीठ शरीर को
शरारत से झुका, और प्यार से  झुला जाती हो |

सुनो,
तुम जब हवा सी बहती हो,
मेरे अंदर की शांत, निस्तेज लौ को
किसी तीक्ष्ण, धधकती ज्वाला में बदल जाती हो |

सुनो,
तुम जब हवा सी बहती हो,
मेरे असंसक्त, निरुदेश्य व्यक्तित्व को
अभिप्रायपूर्ण, सुसंबद्ध इंसान मे बदल जाती हो |

Tuesday, 14 February 2017

एक कविता वात्सल्य के नाम

आखें, 
मानो चकमकाके,
सारी दुनिया को एक ही झपक मे 
निहार लेना चाहती हों |

बाहें, 
मानो छटपटा के,
सारी दुनिया की खुशियाँ 
बटोर लेना चाहती हों |

मुस्कुराहट, 
मानो जागनागाके,
सारी दुनिया का आकर्षण 
पा लेना चाहती हों |

आवाज़, 
मधु छलका के, 
सारी दुनिया को 
डूबा देना चाहती हो |

दो महीने की हो तुम, 
क्या कोई परी हो,
और सबको अपना गुलाम बना लेना चाहती हो?

Sunday, 13 November 2016

सृजन

मैं
यहाँ अपनी धृष्टता में,
शब्दों को उधेड़-बुनकर
सोच-वोच कर किसी तरह
कागज़ और कलम से
एक कविता उकेरने की कोशिश कर रही हूँ|

वो मकड़ी,
वहाँ अपनी धृष्टता में
जीवों की समीपता को देख-परखकर
थूक-वूक कर किसी तरह

ध्यान और लगन से
एक जाल बनाने की कोशिश कर रही है|

वो बालक
वहाँ अपनी धृष्टता में
सवाल की गंभीरता को जान कर
लिख-मिटा कर किसी तरह

प्रतिबद्धता और परिश्रम से
गणित के सवाल बनाने की कोशिश कर रहा है|

वो नदी
वहाँ अपनी धृष्टता में
पहाड़ की छाती को नाप-समझकर
बह -वह कर किसी तरह
हठ और बुलंदी से
एक रास्ता बनाने की कोशिश कर रही है|

वो तबायफ
वहाँ अपनी धृष्टता में
ग्राहकों की जेबें देख-भाँपकर
मटक -वटक कर किसी तरह

आधे-पौने मन से
अपना चूल्हा बनाने की कोशिश कर रही है|

हम सब,
अपनी-अपनी धृष्टता में
लिखते-मिटाते, बनते-बिगड़ते
लगे हुए हैं, सृजन मे
हम सब, कवि ही तो हैं|


Wednesday, 26 October 2016

अंतहीन उम्मीदें

मैं रोज़ सुबह रूकती हूँ
पांच मिनट के सिग्नल के लिए 
मधुबन चौक पर 

वो फिरकी वाली आती है 
टेढ़ा- मेढा  मुँह  बनाती है 
फिरकी खरीदने की बात कहती है 
और चली जाती है 

हफ़्तों बीत जाते हैं 
मैं कपडे नहीं दोहराती 
और वो  मुझे पहचान नहीं पाती 

पर मैं उसे पहचानती हूँ 
उसके कपडे , उसकी आवाज़ 
उसकी मुखाकृतियाँ , उसके बोल 
हफ़्तों नहीं बदलते 
कभी नहीं बदलते 
अंतहीन 

सिग्नल हरा हो जाता है 
मैं खुली सड़क पर निकल जाती हूँ 
हवा को चीरते हुए 
मन में उम्मीदें होती हैं 
अंतहीन 

एक दिन मेरी दुपहिया 
चारपहिये में बदल जाएगी 
फिर और परिष्कृत हो जाएगी 
फिर चालक भी होगा 
अंतहीन 

और मैं कपडे नहीं दोहराऊंगी 
महीनों नहीं , सालों नहीं 
जूते भी नहीं ,कभी नहीं 
अंतहीन 

कभी कभी फिरकी वाली के बारे में सोचती हूँ 
सिग्नल के हरा होते ही 
वो भी आज़ाद हो जाती होगी 
मेरी तरह उम्मीदों में खो जाती होगी 

क्या  होती होंगी उसकी उम्मीदें 
रोज़ दस  फिरकियां बिक जाएं 
या पचास , या सौ 
अंतहीन 

अंतहीन उम्मीदें 
जोड़ देती हैं
एक निगमित, व्यस्त  लड़की के मन को 
एक परित्यक्त, निर्धन लड़की के मन से

Tuesday, 11 October 2016

Preferences

If there is a possibility 

of talks over silences
of trees over buildings
of a "Cup of tea" over "Monster shakes"
of dinning hall over lavish restaurants
of bike rides over the luxury cars
of the smaller town and the greener grass
of the handmade gifts over platinum and diamonds
of being a family over being good friends
of satisfactions over ambitions
of sweet candies over chewing gums
of more fulfillment over lesser promises
of skirts as well as scarves
of "Knock not required"
of "Perfectly warm temperature"
of denials over unclear acceptances
of exceptions from the real world

of a prodigious, clean mirror, where I can see myself, and through it,


You belong to me

Monday, 3 October 2016

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी

ग़ालिब साहब की मशहूर शायरी के सम्मान में नाचीज़ की लिखी कुछ पंक्तियाँ -

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले |

तमन्ना थी तेरे कंधे पे सिर अपना टिका दू मैं,
यही हो रात मेरी, दिन भी मेरा, सुबह - ओ - शब गुज़रे |

बहुत होता सुकून जो नामंज़ूर -ए -इश्क़ या खुदा कह दे,
के दिल के टूट पर भी अक्स से ना तुम निकले ना हम निकले |

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले |