Sunday 13 November 2016

सृजन

मैं
यहाँ अपनी धृष्टता में,
शब्दों को उधेड़-बुनकर
सोच-वोच कर किसी तरह
कागज़ और कलम से
एक कविता उकेरने की कोशिश कर रही हूँ|

वो मकड़ी,
वहाँ अपनी धृष्टता में
जीवों की समीपता को देख-परखकर
थूक-वूक कर किसी तरह

ध्यान और लगन से
एक जाल बनाने की कोशिश कर रही है|

वो बालक
वहाँ अपनी धृष्टता में
सवाल की गंभीरता को जान कर
लिख-मिटा कर किसी तरह

प्रतिबद्धता और परिश्रम से
गणित के सवाल बनाने की कोशिश कर रहा है|

वो नदी
वहाँ अपनी धृष्टता में
पहाड़ की छाती को नाप-समझकर
बह -वह कर किसी तरह
हठ और बुलंदी से
एक रास्ता बनाने की कोशिश कर रही है|

वो तबायफ
वहाँ अपनी धृष्टता में
ग्राहकों की जेबें देख-भाँपकर
मटक -वटक कर किसी तरह

आधे-पौने मन से
अपना चूल्हा बनाने की कोशिश कर रही है|

हम सब,
अपनी-अपनी धृष्टता में
लिखते-मिटाते, बनते-बिगड़ते
लगे हुए हैं, सृजन मे
हम सब, कवि ही तो हैं|