Wednesday 26 October 2016

अंतहीन उम्मीदें

मैं रोज़ सुबह रूकती हूँ
पांच मिनट के सिग्नल के लिए 
मधुबन चौक पर 

वो फिरकी वाली आती है 
टेढ़ा- मेढा  मुँह  बनाती है 
फिरकी खरीदने की बात कहती है 
और चली जाती है 

हफ़्तों बीत जाते हैं 
मैं कपडे नहीं दोहराती 
और वो  मुझे पहचान नहीं पाती 

पर मैं उसे पहचानती हूँ 
उसके कपडे , उसकी आवाज़ 
उसकी मुखाकृतियाँ , उसके बोल 
हफ़्तों नहीं बदलते 
कभी नहीं बदलते 
अंतहीन 

सिग्नल हरा हो जाता है 
मैं खुली सड़क पर निकल जाती हूँ 
हवा को चीरते हुए 
मन में उम्मीदें होती हैं 
अंतहीन 

एक दिन मेरी दुपहिया 
चारपहिये में बदल जाएगी 
फिर और परिष्कृत हो जाएगी 
फिर चालक भी होगा 
अंतहीन 

और मैं कपडे नहीं दोहराऊंगी 
महीनों नहीं , सालों नहीं 
जूते भी नहीं ,कभी नहीं 
अंतहीन 

कभी कभी फिरकी वाली के बारे में सोचती हूँ 
सिग्नल के हरा होते ही 
वो भी आज़ाद हो जाती होगी 
मेरी तरह उम्मीदों में खो जाती होगी 

क्या  होती होंगी उसकी उम्मीदें 
रोज़ दस  फिरकियां बिक जाएं 
या पचास , या सौ 
अंतहीन 

अंतहीन उम्मीदें 
जोड़ देती हैं
एक निगमित, व्यस्त  लड़की के मन को 
एक परित्यक्त, निर्धन लड़की के मन से

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